सूखा पीड़ित अहमदनगर जिले के श्रीगोंडा ताल्लुका के किसान भाऊरव कराडे ने अपने बड़े भाई विट्ठल से कहा कि वे अपनी जमीन बेचकर एक मराठी फिल्म बनाते हैं तो पूरा परिवार चौंक गया। एक ओर जहां परिवार सूखे की चपेट में आकर परेशान था, वहीं परिवार के एक सदस्य द्वारा दी गई इस तरह की सलाह से सभी सकते में आ गए।
एक साल बाद यह परिवार अपनी बनाई फिल्म की सफलता का जश्न बना रहा है। सूखा पीड़ित किसानों की स्थिति और उनकी हालत को बेहद संवेदनशील तरीके से पर्दे पर उतारने के लिए इस फिल्म को सम्मानित किया जा चुका है।
भाऊरव ने अपने परिवार को जमीन बेचने के लिए मनाया। अपनी पहली फिल्म बनाने के लिए जमीन बेचकर उन्होंने 85 लाख रुपये की पूंजी जमा की। मराठी में बनी इस बेहद संवेदनशील फिल्म का नाम ख्वाडा है। मराठी में ख्वाडा का मतलब बाधाएं होता है। यह फिल्म आगामी शुक्रवार को सिनेमाघरों में रिलीज होने जा रही है। पूरी फिल्म की शूटिंग कराडे के गांव अहमदनगर जिले में हुई है। इस फिल्म के ज्यादातर कलाकार भी ग्रामीण इलाकों से ही हैं। पूरी फिल्म में किसानों का संघर्ष दिखाया गया है। खास बात यह भी है कि इस फिल्म के किसी भी चरित्र ने फिल्म में किसी तरह का मेकअप इस्तेमाल नहीं किया है।
35 साल के भाऊरव बताते हैं, ‘मैंने अपने परिवार को समझाया कि जमीन को पकड़कर रखने और बाद में कर्ज में डूबकर आत्महत्या कर लेने से बेहतर होगा कि हम अपनी जमीन बेच दें और उस पैसे से मैं फिल्म बनाऊं। मैंने उनसे कहा कि हमें कुछ रचनात्मक करना चाहिए। कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे कि हमारी जिंदगी में कुछ बेहतर दिन आ सकें।’
इस फिल्म को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कई जगह काफी तारीफें मिल चुकी हैं। ख्वाडा को 62वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में विशेष जूरी मेंशन और सिंक साउंड अवॉर्ड दिया गया। इसे अब तक 5 राज्य पुरस्कार मिल चुके हैं। इसे सर्वश्रेष्ठ निर्देशन और सर्वश्रेष्ठ फिल्म (ग्रामीण) का भी पुरस्कार दिया जा चुका है। पुणे फिल्म महोत्सव में भी इसकी बहुत सराहना हुई। कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में भी इसका फिल्मांकन किया जा रहा है।
भाऊरव का फिल्म निर्देशक बनने का सपना उन्हें अपने गांव से पुणे लेकर आया और उन्होंने FTII में दाखिला लेने की कोशिश की, लेकिन उन्हें दाखिला नहीं मिला क्योंकि उन्होंने अपने कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। वह बताते हैं, ‘मैं नासिक चला गया और वहां अपने स्नातक की पढ़ाई पूरी की। फिर मुझे जनसंचार व पत्रकारिता में यशवंतराव चव्हाण महाराष्ट्र मुक्त विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया। वहीं मैं पहली बार कैमरा और फिल्म मेकिंग की ओर आकर्षित हुआ। तब से ही एक फिल्म बनाना मेरी जिंदगी का मकसद बन गया था।’
पत्रकारिता व जनसंचार की पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने ख्वाडा की कहानी लिखी थी। यह फिल्म ऐसे किसान समुदाय की कहानी है जो कि पानी के संकट से निपटने के लिए पलायन कर जाता है। वह कहते हैं, ‘पलायन में जो चुनौतियां मिलती हैं वह काफी गंभीर होती हैं। इसमें बाधाएं भी बहुत होती हैं।’
अपनी फिल्म की कहानी की तरह ही ख्वाडा की पूरी टीम को शूटिंग करते समय कई तरह की दिक्कतों से जूझना पड़ा। भाऊरव बताते हैं, ‘फिल्म की शूटिंग के पहले दौर के बाद ही हमारा पैसा खत्म हो गया। हमें कुछ दिनों के लिए शूटिंग को रोकना पड़ा। मुझे 30 लाख रुपयों का इंतजाम करने के लिए एक और जमीन का टुकड़ा बेचना पड़ा। साथी कलाकारों और दोस्तों ने भी पैसे दिए। फिल्म पर पूरा खर्च 1.20 करोड़ का आया।’
पोस्ट प्रॉडक्शन का काम खत्म होने के बाद, भाऊरव के पास फिल्म को रिलीज करने का पैसा नहीं था। आखिर में जाने-माने हिंदी फिल्मों के निर्देशक चंद्रकांत मोरे ने इस फिल्म को रिलीज करने में खास दिलचस्पी ली। मोरे बताते हैं, ‘भाऊरव को फिल्म निर्माण से जुड़े सभी पक्षों की पूरी समझ है। ख्वा़डा में हिट होने के साथ-साथ फिल्म महोत्सवों में वाहवाही लूटने के सभी गुण हैं। हम इसे पूरे महाराष्ट्र में रिलीज करेंगे और मुझे यकीन है कि फिल्म से होने वाली कमाई से भाऊरव फिर से अपने परिवार की जमीन खरीद सकेगा।’
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