कामदेव के इस वसन्त मौसम पर नवीन पुष्पों, लताओं, मलय पवन, और पलाश, गूँजते भँवरों, पीली सरसों, कूकती चिड़ियाओं वाले श्रृंगार के निबंध लिख लिखकर बच्चे पक चुके हैं | शायद अब स्कूलों में न लिखवाया जाता हो, पर हमने तो जो निबंध सातवीं क्लास में लिखा था वो साल दर साल बारहवीं तक साथ निभाता रहा, उसमें कालिदास का एक श्लोक डाल देने से निबंध की छटा दर्शनीय हो गई थी |
वह निबंध मैंने श्री व्यथित हृदय की बाबा आदम के जमाने की पीली पड़ चुकी किताब ‘आधुनिक हिंदी निबंध’ की सहायता से लिखा था, मुझे लगता है वसन्त के अत्यधिक श्रृंगार से ही अंततः उनका हृदय व्यथित हुआ और उन्होंने अपना नाम ही बदल लिया ! खैर! मन की गहराइयों में जमी हुई वसन्त की कल्पनाएं मैंने कभी सच में नहीं देखी, हाँ उन मनःचित्रों का आंशिक रूप यदा कदा देखा है।
परवान पर चढ़ता वसन्त निहायत अजीब मौसम है, रजाई में दुबकी गर्मी बाहर निकल आई है और सूरज ने छतों पर धूप सेकते बूढ़ों को नीचे भेज दिया है। “पंखा कितने नम्बर पर चलाना है और छोटा मोटा स्वैटर पहनना है या हाफ बुर्शट ही बहुत है”, की उलझन खड़ी हो गई है, क्योंकि माँ हमेशा कहती आई है, ‘जाती जाती सर्दी लग जाएगी’। बड़े तो मनमानी कर लेते हैं पर बच्चों को जबरदस्ती स्वैटर पहनाया जाता है क्योंकि उनके फाइनल एग्जाम आ रहे हैं। बच्चों के लिए स्वैटर से बड़ी टेंशन मार्च की है, जो हिटलर के सैनिकों की तरह मार्च करता हुआ आ रहा है, हांलांकि बड़ों के लिए भी मार्च टेंशन ही है।
एक और बड़ी टेंशन है जो इस मौसम में पसरी है, ये मौसम बहुत बेवफा मौसम है, आलस से भरपूर, सारे दिन शरीर ढीला सा रहता है, कुछ काम करने का भी मन नहीं करता। बस हल्का पंखा चलाकर कोई बढ़िया उपन्यास लेकर बैठो और पढ़ते पढ़ते आंख लग जाए, वाह! किसी रविवार के दिन खाना खाया और भर के छाछ पीलो, फिर कितना बढ़िया आलस आता है, मज़ा आ जाता है! टीवी पर चैनल बदलते बदलते अचानक मन करता है कि भैया सो जाते हैं, और लेटते ही गहरी नींद में। तो ये अलसाया हुआ मौसम कुछ काम धाम करने नहीं देता। बच्चों का भी ये ही टेंशन है कि पढ़ने बैठे और नींद आने लगी, अब पढ़ें कि सोएं, बीच बीच में होली के मौसम वाली फील आती है, एक आंतरिक सुगन्ध सी आती है, गुलाल की! और मन कहीं खो जाता है, किसी पेड़ की छाया में बैठ जाना चाहता है, घर के किसी कोने में कहानियों की किताब हाथ में लिए पड़ जाना चाहता है, खाली बैठकर संतरे खाते रहें बस, या सो जाएं, तभी अचानक एग्जाम है बे मार्च में, पढ़ ले, और रिपीट!
घर से बाहर निकलने में भी एक समस्या है, बाहर चेपा(भुन्का) बहुत हो गई है, कब, कहाँ से मुंह, नाक, आँख में घुस जाए पता ही नहीं चलता। आजतक मैं ये नहीं समझ सका की शहर से बाहर स्थित मीलों दूर के सरसों के खेतों से ये चेपा हमारे शहर में कैसे घुस आई और मूलनिवासियों पर इन बाहरी आक्रमणकारियों के ख़िलाफ़ कोई हाशिये के लोगों का हमदर्द कलम भी लाल नहीं करता।
अब होली आने वाली है जिसका सालभर इंतज़ार रहता है, होली से ही वसन्त की ख़ूबसूरती है, क्या आपको भी ऐसा लगता है? वसन्त के त्यौहारों का सीधा सम्बन्ध प्रेम और उल्लास के देवता कामदेव से दिखाई देता है, देखो ना विदेसी लोग भी कहाँ बचते हैं, वैलेंटाइन उनका भी इसी बीच पड़ता है। इन त्यौहारों पर चलने वाली बहस में भी वही उन्माद है।
प्राचीन काल में नाट्य-संगीत-नृत्य-कला के वसन्तोत्सव और कौमुदी महोत्सव भी हमारा देश इस समय मनाता रहा है। खासकर ब्रजमण्डल ने अतीत के उन भग्नावशेषों को आज भी काफी सम्भालकर रखा है। होली की मादकता केवल उस दिन की नहीं होती, पूरा वसन्त उस मादकता से रचा बसा है। ‘चितचोर’ का भी होली ही प्रिय त्यौहार है, राधिका और श्याम की होली हर कोई मन के किसी कोने में खेल लेना चाहता है। यह मौसम ही खेलने का है, अवधूत भी उससे नहीं बच पाते, मसाने की राख से ही सही दिगम्बर भी होरी का आनन्द पाते हैं। हो न हो, वसन्त सबके मनों का कोई न कोई कोना तो मुदित कर ही देता है, निबंधों का वसन्त जो भी हो, कोई न कोई वसन्त हर बरस आता रहना चाहिए…