पुरुष अर्थात कठोरता का प्रतीक, शक्ति का प्रतीक, दंड देने में समर्थ, जीवन की हर भागदौड़ को झेलने में समर्थ, अर्थात एक तरह से यह कहा जाय कि जिस घर में पुरुषो की संख्या अधिक होती है वहां लोग अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं, अर्थात पुरुष को प्रकृति ने पालक और संरक्षक की भूमिका में भेजा था ।
अब बात करते हे स्त्री की भूमिका पर,
स्त्री अर्थात सुंदरता, कोमलता, प्रेम सोहार्द, अन्नपूर्णा की मूरत अर्थात स्नेह से भरपूर भावो के साथ । स्त्री की भूमिका घर परिवार में प्रकृति द्वारा रचनात्मक कार्यो के लिए तय की गयी थी ।
अर्थात पुरुष जीवन की भागदौड़ से थका हुआ धन कमा कर घर आता और उस धन को अपनी पत्नी या माँ को सौप देता घर गृहस्थी चलाने के लिए और बदले में उसको मिलता सुसंस्कृत और प्रेम भरा घरेलू सुन्दर वातावरण । और इस तरह हमारा समाज वैदिक काल से व्यवस्थित चला आ रहा था ।
जब पुरुष किसी बीमारी या किसी और शारीरिक या व्यक्तिगत समस्या के कारन अपने इस दायित्व को नही सभाल पाता था तो फिर मज़बूरी वश स्त्री उस भार को अपने ऊपर ख़ुशी ख़ुशी ले लेती थी और तब घरेलू काम को पुरुष संभालता था और स्त्री सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करती थी। अगर यह व्यवस्था ऐसे ही चलती रहती तो न इसमें पुरुष को कोई दिक्कत थी और न स्त्री को परन्तु ऐसा हुआ नहीं और इस व्यवस्था को भंग करने का सबसे बड़ा कारण खुद पुरुष का अपने दायित्वों से विमुख हो जाना है ।
नदी जब अपने किनारो में बंध कर चलती रहती है तब तक वो पालन करती है और निर्मल जीवनदायनी होती है परन्तु जब यही नदी अपने किनारो को तोड़कर बहती है तो बाढ़ आती है और विनाश होता है । यही हुआ जब नदी रूपी स्त्री अपने किनारे तोड़कर बहने को मजबूर हुई ,और उसी का दुष्परिणाम यह हुआ कि समाज की व्यवस्था भंग होने लगी है ।
आखिर क्या हुआ जो स्त्री घर के सुरक्षित माहौल को छोड़ कर घर की चाहरदीवारी से बाहर आकर आत्मनिर्भर बनने को मजबूर हुई और उसके क्या दुष्परिणाम हुए ?
स्त्री को आत्मनिर्भर बनने के लिए घर की चाहरदीवारी लांघने को मजबूर किया खुद पुरुष ने और पितृ सत्तात्मक मानसिकता वाली सोच ने । पुरुष वैदिक काल में जब स्त्री से विवाह करता था, तो वह प्रतिज्ञा करता था और जीवन पर्यन्त इन प्रतिज्ञाओ का पालन करता था !
यही 9 प्रतिज्ञाये थी जिनकी वजह से समाज बंधा हुआ था नारी की शालीन और लज्जा रूपी डोर से , क्योंकि जब तक पुरुष विवाह के बाद स्त्री के साथ इन प्रतिज्ञाओ को मान कर जीवन निर्वाह करता रहा तब तक स्त्री को आवश्यकता ही नही पड़ी घर की चाहरदीवारी लांघने की, परन्तु पुरुष इन प्रतिज्ञाओं पर कायम नही रह सका । जैसे जैसे भारत में वैदिक काल का पतन हुआ समाज धर्म से विमुख होता चला गया और उस धर्म से विमुख होने की सजा सर्वप्रथम जिसे भोगनी पड़ी वह स्त्री ही थी ।
हमारे समाज में वैदिक काल से ही नारी का बहुत सम्मान रहा है, नारी को गृह लक्ष्मी, अन्नपुर्णा और न जाने कितने ही विशेषण से पुकारा गया है। परन्तु उस सम्मान को पुरुष की बढ़ती सत्तात्मक सोच ने नारी की गृहलक्ष्मी वाली छवि को तार तार कर दिया और यही से प्रारम्भ हुआ स्त्री पर घरेलू अत्याचार का काला अध्याय । स्त्री आर्थिक रूप से सक्षम नही थी इसी वजह से वो पुरुषवादी समाज के अत्याचार झेलने को मजबूर थी, वो यह मानने को मजबूर कर दी गयी कि “भला है बुरा है कैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है” और उस देवता ने उसको शारीरिक और मानसिक रूप से इतना प्रताणित कर दिया कि स्त्री को घर की चाहरदीवारी की बेड़ियों को तोड़कर महिला सशक्तिकरण की आवाज बुलन्द करनी पड़ी और उसके फलस्वरूप धीरे धीरे गृहणी वाली छवि को तोड़ती हुई कामकाजी महिलाओ की चकाचौंध ने महिला जगत को रोशन करना और प्रेरणा देना प्रारम्भ कर दिया, जिसके फलस्वरूप हर महिला आर्थिक आजादी की चाहत और पुरुषवादी मानसिकता से मुक्ति की आस सजोने लगी ।
समाज में गृहस्थ जीवन की गांठे खुलने लगी। स्त्री जब कामकाजी कर्तव्यों को पूरा करने के लिए अपना अधिकतर समय घर से बाहर बिताने लगी तब घर में आर्थिक हालात और नारी के प्रति लोगो की सोच में तो बदलाव आना प्रारम्भ हो गया ! पुरुष के आर्थिक दायित्व महिला के आर्थिक दायित्वों से अधिक होते हे क्योंकि उसका सोचने का नजरिया विस्तृत होता हे जबकि स्त्री का संसार मै , मेरा पति और मेरे बच्चे तक सीमित रहता है और इसी वजह से कई बार स्त्री किसी भी संस्थान की सभी शर्तों को मान कर कम पैसे में भी काम करने को तैयार हो जाती हैं जिस कारण महिलाओ ने धीरे धीरे पुरुषो के रोजगार के अवसरों पर कब्जा करना तो शुरू कर दिया !
पुरुषों के आर्थिक हालात बिगड़ने लगे क्योंकि संस्थान महिलाओ को रोजगार देने में वरीयता देने लगे क्योंकि महिलाये सीधी-साधी और अच्छी कर्मचारी साबित होने लगी पर कमाए हुए पैसे पहले से कम लोगों की ज़िम्मेदारी पर खर्च होने लगे और सास ससुर को वृद्ध आश्रम में धकेला जाने लगा । समाज इस समय भीषण बदलाव से गुजर रहा है और महिलाओं ने समझ लिया है कि आर्थिक सक्षमता में ही उनकी स्वतंत्रता और अधिकारों की चाबी है ! आज महिलायें पढ़-लिख कर ज्ञान के रस्ते अपने भविष्य को उज्वल बना रही हैं वहीँ पुरुषों को चाहिए कि वो पारम्परिक नौकरियों और व्यवसय पर निर्भर न रह कर रोज़गार के नए आयाम तलाशें !