भारतीय संस्कृति व सभ्यता विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में से एक है। सनातन धर्म को पृथ्वी का सबसे प्राचीन धर्म माना जाता है, सनातन धर्म की उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले की है।
सनातन धर्म वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए है। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है।
सबसे प्राचीन धर्म होने के कारण सम्पूर्ण भारत में अनेकों ऐसे मंदिर है, जो हज़ारों साल पुराने है। इसलिए हम आपको ऐसे ही कुछ मंदिरों के बारे में बता रहे है जो 1000 साल से ज्यादा पुराने हैं।
बादामी मंदिर:
बादामी मंदिर का निर्माण चालुक्य राजवंश ने 6वीं से 8वीं शताब्दी में करवाया। बादामी उत्तर कर्नाटक के बागलकोट जिले का एक प्राचीन शहर है। प्राचीनकाल में यह शहर वातापी के नाम से भी जाना जाता था। घाटी में स्थित सुनहरे बलुआ पत्थर की चट्टानों से घिरा हुआ बादामी नगर दक्षिण भारत के उन प्राचीन स्थानों में से है, जहाँ बहुत अधिक मात्रा में मंदिरों का निर्माण हुआ।
6वीं से 8वीं शताब्दी में वातापी नगरी चालुक्य वंश की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध थी। पहली बार यहाँ 550 ई. के लगभग पुलकेशी प्रथम ने अपनी राजधानी स्थापित की थी। उसने वातापी में अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करके अपने वंश की सुदृढ़ नींव स्थापित की थी। 608 ई. में पुलकेशी द्वितीय वातापी के सिंहासन पर आसीन हुआ। यह बहुत प्रतापी राजा था। वातापी पर चालुक्यों का 200 वर्षों तक राज्य रहा। इस काल में वातापी नगर ने बहुत उन्नति की। हिन्दू, बौद्ध और जैन तीनों ही सम्पद्रायों ने अनेक मन्दिरों तथा कलाकृतियों से इस नगरी को सुशोभित किया।
छठी सदी में दंन्तिदुर्ग और कृष्ण प्रथम प्रमुख हैं। कृष्ण के समय में एलौरा का जगत प्रसिद्ध मन्दिर बना था किन्तु राष्ट्रकूटों के शासनकाल में वातापी का चालुक्यकालीन गौरव फिर न उभर सका और इसकी ख्याति धीरे-धीरे विलुप्त हो गई।
चेन्नाकेसवा मंदिर :
चेन्नाकेसवा मंदिर का निर्माण होयसल राजवंश ने 12वीं शताब्दी के आसपास करवाया था। यह मंदिर कर्णाटक राज्य के बेलूर शहर में कावेरी नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर उस काल की सुंदर वास्तुकला का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता है।
चेन्नाकेसवा मंदिर होयसल राजा नरसिंह ने अपने मंत्री केतमल्ल की देख रेख में शिल्पकार केदरोज ने इस शानदार मन्दिर का नक्शा बनाया तथा निर्माण कराया। अगले सौ वर्षों तक इसका निर्माण होता रहा। यह दोहरा मन्दिर है। यह मन्दिर शिखर रहित है और यह 3 सितारों के आकार के एक मंच पर रखा गया है। मन्दिर की भित्तियों पर चतुर्दिक सात लम्बी पंक्तियों में अद्भुत मूर्तिकारी की गई है।
मूर्तिकारी में तत्कालीन भारतीय जीवन के अनेक कलापूर्ण दृश्य जीवित हो उठे हैं। इस मंदिर में प्रवेश करने पर भक्तों को एक स्तम्बों का सभागृह दिखेगा जो उन्हें तीन सितारों के आकार के पवित्र स्थान में ले जाएगा। केशव मंदिर की दीवारों पर देवी, देवताओं की छवियों, संगीतकारों, शेर, बंदर, हाथी, नृत्य करती लड़कियों से नक्काशा गया है। यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है।
श्री वरदराजा पेरुमल मंदिर:
श्री वरदराजा पेरूमल मंदिर का निर्माण राजा कृष्णवर्मा ने करवाया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार राजा कृष्णवर्मा पर पड़ोसी राज्य के एक राजा ने हमला कर दिया था। ऐसा माना जाता है कि भगवान वरादराज पेरुमल ने वीरराघवन के रूप में राजा कृष्णवर्मा की मदद की थी।
वीरराघवन की मदद से राजा कृष्णवर्मा अपना राज्य बचाने में कामयाब हो गए और भगवान वरदराजा पेरुमल के कट्टर अनुयायी बन गए। भगवान के सम्मान में राजा ने इस मंदिर को बनवाया। इस मंदिर के आसपास राजा ने एक शहर का भी निर्माण किया, जो वीरराघवपुरम के नाम से जाना जाने लगा। यह मंदिर तामिरभरणी नदी के तट पर स्थित है।
ब्रह्मा मंदिर, पुष्कर:
इस मन्दिर का निर्माण लगभग १४वीं शताब्दी में हुआ था जो कि लगभग २००० हज़ार वर्ष पुराना है। यह राजस्थान राज्य के अजमेर ज़िले में पवित्र स्थल पुष्कर में स्थित है। इस मन्दिर में जगत पिता ब्रह्माजी की मूर्ति स्थापित है। यह मन्दिर मुख्य रूप से संगमरमर के पत्थरों से निर्मित है। इस मंदिर का पद्मपुराण में भी उल्लेख मिलता है। कार्तिक पूर्णिमा त्योहार के दौरान यहां मन्दिर में हज़ारों की संख्या में भक्तजन आते रहते है।
भारत में ब्रह्मा जी का सिर्फ एक ही मंदिर है। जबकि बाकी सभी देवी-देवताओं के हज़ारो मंदिर मौजूद हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि ब्रह्मा जी की पत्नी सरस्वती ने उन्हें श्राप दिया था। यही कारण है कि ब्रह्मा जी का देश में एक ही मंदिर है। सरस्वती ने अपने पति ब्रह्मा को ऐसा श्राप क्यों दिया था इसका वर्णन पद्म पुराण में मिलता है।
पुराण में मंदिर कथा :
पद्म पुराण के अनुसार धरती पर वज्रनाश नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। उसके बढ़ते अत्याचारों से तंग आकर ब्रह्मा जी ने उसका वध कर दिया। लेकिन वध करते समय उनके हाथों से तीन जगहों पर कमल का पुष्प गिरा, इन तीनों जगहों पर तीन झीलें बन गई। इस घटना के बाद इस स्थान का नाम पुष्कर पड़ गया औऱ ब्रह्मा ने संसार की भलाई के लिए यहां एक यज्ञ करने का फैसला किया। ब्रह्मा जी यज्ञ करने के लिए पुष्कर पहुंच गए लेकिन उनकी पत्नी सरस्वती जी समय पर नहीं पहुंच सकीं। यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उनके साथ उनकी पत्नी का होना जरूरी था, लेकिन सरस्वती जी के नहीं पहुंचने की वजह से ब्रह्मा जी ने गायत्री नमक कन्या विवाह कर इस यज्ञ को शुरू किया। उसी दौरान देवी सरस्वती वहां पहुंची और ब्रह्मा के बगल में दूसरी कन्या को बैठा देख क्रोधित हो गईं।
उन्होंने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि देवता होने के बावजूद कभी भी उनकी पूजा नहीं होगी। सरस्वती के इस रुप को देखकर सभी देवता डर गए। सभी ने सरस्वती जी से विनती की कि अपना श्राप वापस ले लीजिए, लेकिन उन्होंने किसा की न सुनी। जब गुस्सा ठंडा हुआ तो सरस्वती ने कहा कि इस धरती पर सिर्फ पुष्कर में ही आपकी पूजा होगी। कोई भी आपका मंदिर बनाएगा तो उसका विनाश हो जाएगा। यही कारण है कि भारत में ब्रह्मा जी का सिर्फ एक ही मंदिर है।
ब्रह्मा जी के मंदिर का निर्माण कब हुआ व किसने किया इसका कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन ऐसा कहते हैं की आज से तकरीबन एक हजार दो सौ साल पहले अरण्व वंश के एक शासक को एक स्वप्न आया था कि इस जगह पर एक मंदिर है जिसके सही रख-रखाव की जरूरत है। तब उस राजा ने इस मंदिर के पुराने ढांचे को दोबारा जीवित किया।
कुम्भेश्वर मंदिर:
कुम्भेश्वर मन्दिर तमिलनाडु के प्रमुख तीर्थ स्थान कुंभकोणम में स्थित है। यह मन्दिर कुंभकोणम तीर्थ स्थल का प्रमुख मंदिर है। 9वीं शताब्दी में बनाया गया यह चोल मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। यह मंदिर 30,181 वर्गफुट में फैला हुआ है। मन्दिर में स्थापित लिंग दिखने में घड़े के आकार जैसा प्रतीत होता है। इसके साथ ही मन्दिर परिसर में देवी पार्वती का मन्दिर भी है। यहाँ देवी पार्वती को ‘मंगलाम्बिका’ कहा जाता है।
शोर मंदिर, महाबलीपुरम, तमिलनाडु:
इस मंदिर का निर्माण नरसिंहवर्मन द्वितीय के काल में 700 से 728 ई.पू. तक काले ग्रेनाइट से करवाया गया था। और इसे बंगाल की खाड़ी के शोर के रूप में जाना जाता है। यह एक संरचनात्मक मंदिर है। यह सबसे प्राचीन पत्थर मंदिरों में से एक है जो देश के दक्षिण भाग में स्थित है। और इसे यूनेस्को के द्वारा विश्व विरासत के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
इस मंदिर में भगवान शिव का एक शिवलिंग स्थापित है, वैसे यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। इसी मंदिर परिसर में देवी दुर्गा का भी छोटा सा मंदिर है जिसमें उनकी मूर्ति के साथ एक शेर की मूर्ति भी बनी हुई है। इस मंदिर में कई धर्मो के लोग पूजा करने आते है जो उस दौरान के शासकों का धार्मिक सहिष्णुता होने का दावा करता है।
सोमनाथ मंदिर :
सोमनाथ मंदिर के बारे में ऐसी मान्यता है कि इसका निर्माण स्वयं चंद्रदेव ने किया था। इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है। इसे अब तक 17 बार नष्ट किया गया है और हर बार इसका पुननिर्माण किया गया। सोमनाथ मंदिर की गिनती 12 ज्योर्तिलिंगों में होती है। यह गुजरात (सौराष्ट्र) के वेरावल बंदरगाह में स्थित है।
सोमनाथ मंदिर विश्व प्रसिद्ध धार्मिक व पर्यटन स्थल है। मंदिर प्रांगण में रात साढ़े सात से साढ़े आठ बजे तक एक घंटे का साउंड एंड लाइट शो चलता है। जिसमें सोमनाथ मंदिर के इतिहास का बडा ही सुंदर सचित्र वर्णन किया जाता है।
अंबरनाथ मंदिर :
इस मंदिर का निर्माण 1060 ईस्वी में शिलाहट के राजा मांबणि ने करवाया था, जो कि मंदिर में मिले एक शिलालेख पर आधारित है। वहां के स्थानीय निवासी इस मंदिर को पांडवकालीन मानते हैं। अंबरनाथ अथवा ‘अमरनाथ’ महाराष्ट्र के मुंबई से 38 मील की दूरी पर स्थित एक नगर है। यह नगर भगवान ‘अंबरनाथ’ को समर्पित मंदिर के कारण लोकप्रिय है।
अंबरनाथ में शिलाहाट नरेश मांबणि द्वारा निर्मित शिव का मंदिर है, जिसे कोंकण का सर्वप्राचीन देवालय माना जाता है। वलधान नदी के तट पर बना यह मंदिर इमली और आम के पेड़ों से घिरा हुआ है। इस मंदिर की वास्तुकला उच्चकोटि की है।
बृहदेश्वर मंदिर :
इस मंदिर का निर्माण चोल शासक राजाराज प्रथम ने 1003-1010 ई. के बीच करवाया था। यह मन्दिर तमिलनाडु के तंजौर में स्थित है। तमिल भाषा में इसे बृहदीश्वर के नाम से संबोधीत किया जाता है। ग्यारहवीं सदी के आरम्भ में बनाया गया था। यह मंदिर चोल शासकों की महान कला केन्द्र रहा है। यह भव्य मंदिर विश्व धरोहर के रूप में जाना जाता है।भगवान शिव को समर्पित बृहदीश्वर मंदिर शैव धर्म के अनुयायियों के लिए पवित्र स्थल रहा है।
इस मंदिर के निर्माण कला की एक विशेषता यह है कि इसके गुंबद की परछाई पृथ्वी पर नहीं पड़ती। शिखर पर स्वर्णकलश स्थित है। जिस पाषाण पर यह कलश स्थित है, अनुमानत: उसका भार 2200 मन (80 टन) है और यह एक ही पाषाण से बना है। मंदिर में स्थापित विशाल, भव्य शिवलिंग को देखने पर उनका वृहदेश्वर नाम सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होता है। मंदिर में प्रवेश करने पर गोपुरम् के भीतर एक चौकोर मंडप है। वहां चबूतरे पर नन्दी जी विराजमान हैं। नन्दी जी की यह प्रतिमा 6 मीटर लंबी, 2.6 मीटर चौड़ी तथा 3.7 मीटर ऊंची है। भारतवर्ष में एक ही पत्थर से निर्मित नन्दी जी की यह दूसरी सर्वाधिक विशाल प्रतिमा है।
यह मंदिर ग्रेनाइट से निर्मित है और अधिकांशत: पत्थर के बड़े खण्ड इसमें इस्तेमाल किए गए हैं, ये शिलाखण्ड आस पास उपलब्ध नहीं है इसलिए इन्हें किसी दूर के स्थान से लाया गया था। यह मंदिर एक फैले हुए अंदरुनी प्रकार में बनाया गया है जो 240.90 मीटर लम्बा (पूर्व – पश्चिम) और 122 मीटर चौड़ा (उत्तर – दक्षिण) है और इसमें पूर्व दिशा में गोपुरम के साथ अन्य तीन साधारण तोरण प्रवेश द्वार प्रत्येक पार्श्व पर और तीसरा पिछले सिरे पर है।
कैलाश मंदिर, महाराष्ट्र :
इस मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूट वंश के नरेश कृष्ण (प्रथम) ने (760-753 ई0) में करवाया था। कैलाश मन्दिर महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले में प्रसिद्ध ‘एलोरा की गुफ़ाओं’ में स्थित है। कैलाश मंदिर महाराष्ट्र के उन प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में से एक है, जो एलोरा की गुफाओं में स्थित है।
भगवान शिव का यह दो मंजिला मंदिर पर्वत की ठोस चट्टान को काटकर बनाया गया है। यह मंदिर दुनिया भर में एक ही पत्थर की शिला से बनी हुई सबसे बड़ी मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर को तैयार करने में करीब 150 वर्ष लगे और लगभग 7000 मजदूरों ने लगातार इस पर काम किया।
लिंगराज मंदिर, भुवनेश्वर :
लिंगराज मन्दिर, भुवनेश्वर ओडीशा का मुख्य मन्दिर है, जिसे ललाटेडुकेशरी ने 617-657 ई. में बनवाया था। यह मंदिर भगवान् शिव के एक रूप हरिहारा को समर्पित है। लिंगराज मंदिर इस शहर के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। हालांकि भगवान त्रिभुवनेश्वर को समर्पित इस मंदिर का वर्तमान स्वरूप 1090-1104 में बना, किंतु इसके कुछ हिस्से 1400 वर्ष से भी ज्यादा पुराने हैं। इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है।
इसकी वास्तुशिल्पीय बनावट भी बेहद उत्कृष्ट है और यह भारत के कुछ बेहतरीन गिने चुने हिंदू मंदिर में एक है। इस मंदिर की ऊंचाई 55 मीटर है और पूरे मंदिर में बेहद उत्कृष्ट नक्काशी की गई है। लिंगराज मंदिर कुछ कठोर परंपराओं का अनुसरण करता है और गैर-हिंदू को मंदिर के अंदर प्रवेश की अनुमति नहीं है।
केदारनाथ मंदिर, उत्तराखंड :
इस मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा रहा है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये १२-१३वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनबाया हुआ है जो कि १०७६-९९ काल के थे। एक अन्य मान्यतानुसार ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है।
यह मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर की पूजा श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है।
बद्रीनाथ मंदिर, उत्तराखंड :
अलकनंदा नदी के किनारे उत्तराखंड राज्य में स्थित बदरीनाथ मंदिर जिसे बदरीनारायण मंदिर भी कहते हैं। यह मंदिर भगवान विष्णु के रूप बदरीनाथ को समर्पित है। यह हिन्दुओं के चार धाम में से एक धाम भी है। गंगा नदी की मुख्य धारा के किनारे बसा यह तीर्थस्थल हिमालय में समुद्र तल से 3,050 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यह अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है। बद्रीनाथ का नामकरण एक समय यहाँ प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली जंगली बेरी बद्री के नाम पर हुआ।
बद्रीनाथ उत्तर दिशा में हिमालय की अधित्यका पर हिन्दुओं का मुख्य यात्रा धाम माना जाता है। मन्दिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञानज्योति का प्रतीक है। बद्रीनाथ भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ है। प्रत्येक हिन्दू की यह कामना होती है कि वह बद्रीनाथ का दर्शन एक बार अवश्य करे। यहाँ पर शीत के कारण अलकनन्दा में स्नान करना अत्यन्त ही कठिन है। अलकनन्दा के तो दर्शन ही किये जाते हैं। यात्री तप्तकुण्ड में स्नान करते हैं।वनतुलसी की माला, चले की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।
बद्रीनाथ की मूर्ति :
बद्रीनाथ की मूर्ति शालग्राम शिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। कहा जाता है कि यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुण्ड से निकालकर स्थापित की थी। सिद्ध, ऋषि, मुनि इसके प्रधान अर्चक थे। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तब उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरम्भ की। शंकराचार्य की प्रचार यात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनन्दा में फेंक गए। शंकराचार्य ने अलकनन्दा से पुन: बाहर निकालकर उसकी स्थापना की। तदनन्तर मूर्ति पुन: स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की। मन्दिर में बद्रीनाथ की दाहिनी ओर कुबेर की मूर्ति है। उनके सामने उद्धवजी हैं तथा उत्सवमूर्ति है। उत्सवमूर्ति शीतकाल में बर्फ़ जमने पर जोशीमठ में ले जायी जाती है। उद्धवजी के पास ही चरणपादुका है। बायीं ओर नर-नारायण की मूर्ति है। इनके समीप ही श्रीदेवी और भूदेवी है।
द्वारिकाधीश मंदिर, गुजरात :
इस मंदिर का निर्माण भगवान श्री कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने करवाया था। कालांतर में मंदिर का विस्तार एवं जीर्णोद्धार होता रहा। मंदिर को वर्तमान स्वरूप 16वीं शताब्दी में प्राप्त हुआ था। इसे आद्यशंकराचार्य जी ने चार धामों में से एक के रूप में स्थापित किया है। द्वारिकाधीश मंदिर से लगभग 2 किमी दूर एकांत में रुक्मिणी का मंदिर है। कहते हैं, दुर्वासा के शाप के कारण उन्हें एकांत में रहना पड़ा।
ऐसा भी कहा जाता है कि उस समय भारत में बाहर से आए आक्रमणकारियों का सर्वत्र भय व्याप्त था, क्योंकि वे आक्रमणकारी न सिर्फ़ मंदिरों कि अतुल धन संपदा को लूट लेते थे बल्कि उन भव्य मंदिरों व मुर्तियों को भी तोड कर नष्ट कर देते थे। तब मेवाड़ यहाँ के पराक्रमी व निर्भीक राजाओं के लिये प्रसिद्ध था। सर्वप्रथम प्रभु द्वारिकाधीश को आसोटिया के समीप देवल मंगरी पर एक छोटे मंदिर में स्थापित किया गया, तत्पश्चात उन्हें कांकरोली के ईस भव्य मंदिर में बड़े उत्साह पूर्वक लाया गया। आज भी द्वारका की महिमा है। यह चार धामों में एक है। इसकी सुन्दरता बखानी नहीं जाती। समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरें उठती है और इसके किनारों को इस तरह धोती है, जैसे इसके पैर पखार रही हों। पहले तो मथुरा ही कृष्ण की राजधानी थी। पर मथुरा उन्होंने छोड़ दी और द्वारका बसाई।
यह मंदिर एक परकोटे से घिरा है जिसमें चारों ओर एक द्वार है। इनमें उत्तर दिशा में स्थित मोक्ष द्वार तथा दक्षिण में स्थित स्वर्ग द्वार प्रमुख हैं। सात मंज़िले मंदिर का शिखर 235 मीटर ऊँचा है। इसकी निर्माण शैली बड़ी आकर्षक है। शिखर पर क़रीब 84 फुट लम्बी बहुरंगी धर्मध्वजा फहराती रहती है। द्वारकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चाँदी के सिंहासन पर भगवान कृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है।
रणछोड़ जी का मंदिर
यहाँ इन्हें ‘रणछोड़ जी’ भी कहा जाता है। भगवान ने हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किए हैं। बहुमूल्य अलंकरणों तथा सुंदर वेशभूषा से सजी प्रतिमा हर किसी का मन मोह लेती है। द्वारकाधीश मंदिर के दक्षिण में गोमती धारा पर चक्रतीर्थ घाट है। उससे कुछ ही दूरी पर अरब सागर है जहाँ समुद्रनारायण मंदिर स्थित है। इसके समीप ही पंचतीर्थ है। वहाँ पाँच कुओं के जल से स्नान करने की परम्परा है। बहुत से भक्त गोमती में स्नान करके मंदिर दर्शन के लिए जाते हैं। यहाँ से 56 सीढ़ियाँ चढ़ कर स्वर्ग द्वार से मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं। मंदिर के पूर्व दिशा में शंकराचार्य द्वार स्थापित शारदा पीठ स्थित है।