चिपको आंदोलन की 45वीं सालगिरह के मौके पर गूगल ने डूडल बनाकर इस आंदोलन को समर्पित किया। गूगल के डूडल में डिजाइन की हुई रंगीन तस्वीर दिख रही है जिसमें एक पेड़ के चारों ओर महिलाओं का एक समूह खड़ा है जो वनों की कटाई के खिलाफ उनकी लड़ाई को प्रस्तुत कर रहा है। यही चिपको आंदोलन का मुख्य उद्देश्य था।
आज हम आपको चिपको आंदोलन से जुडी कुछ बातों को बता रहे हैं। चिपको आंदोलन की शुरुआत 1973 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश (मौजूदा उत्तराखंड) के जंगल बहुल इलाके में मशहूर पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में हुई थी। जिसमें पेड़ों की कटाई के खिलाफ आंदोलन छेड़ा गया था।
चिपको आन्दोलन की शुरुआत
चिपको आन्दोलन की शुरुवात 26 मार्च, 1974 को पेड़ों की कटाई रोकने के लिए हुई थी। उस साल जब उत्तराखंड के रैंणी गाँव के जंगल के लगभग ढाई हज़ार पेड़ों को काटने की नीलामी हुई, तो गौरा देवी नामक महिला ने अन्य महिलाओं के साथ इस नीलामी का विरोध किया। इसके बावजूद सरकार और ठेकेदार के निर्णय में बदलाव नहीं आया। जब ठेकेदार के आदमी पेड़ काटने पहुँचे, तो गौरा देवी और उनके 21 साथियों ने उन लोगों को समझाने की कोशिश की।
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जब उन्होंने पेड़ काटने की जिद की तो महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर उन्हें ललकारा कि पहले हमें काटो फिर इन पेड़ों को भी काट लेना। अंतत: ठेकेदार को जाना पड़ा। बाद में स्थानीय वन विभाग के अधिकारियों के सामने इन महिलाओं ने अपनी बात रखी। फलस्वरूप रैंणी गाँव का जंगल नहीं काटा गया। इस प्रकार यहीं से “चिपको आंदोलन” की शुरुआत हुई।
आन्दोलन के मुख्य कार्यकर्ता-
यह आंदोलन सैकड़ों विकेंद्रित तथा स्थानीय स्वत: स्फूर्त प्रयासों का परिणाम था। इस आंदोलन के नेता सुन्दर लाल बहुगुणा और कार्यकर्ता मुख्यत: ग्रामीण महिलाएँ थीं, जो अपने जीवनयापन के साधन व समुदाय को बचाने के लिए तत्पर थीं। पर्यावरणीय विनाश के ख़िलाफ़ शांत अहिंसक विरोध प्रदर्शन इस आंदोलन की अद्वितीय विशेषता थी।
चिपको आन्दोलन में सबसे अहम भूमिका गौरा देवी नाम की वीरांगना ने निभाई थी। ऐसे मौके पर जब गूगल चिपको आंदोलन को सलाम कर रहा है, आइये आज गौरा देवी के बारे में जानते हैं…
गौरा देवी का जन्म 1925 में चमोली जिला के लाता नाम के गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम नारायण सिंह था। उन्होंने पांचवीं तक पढ़ाई की थी। सिर्फ 11 साल की उम्र में उनकी शादी रैंणी गांव के मेहरबान सिंह नाम के व्यक्ति से हुई। रैंणी भोटिया (तोलछा) का स्थायी आवासीय गांव था, ये लोग अपनी गुजर-बसर के लिये पशुपालन, ऊनी कारोबार और खेती-बाड़ी किया करते थे।
प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने की तिथि 26 मार्च तय की गई, जिसे लेने के लिए सभी को चमोली आना था। इसी बीच वन विभाग ने सुनियोजित चाल के तहत जंगल काटने के लिए ठेकेदारों को निर्देश दिया था कि 26 मार्च को चूंकि गांव के सभी मर्द चमोली में रहेंगे और समाजिक कायकर्ताओं को बातचीत के बहाने गोपेश्वर बुला लिया जाएगा और आप मजदूरों को लेकर चुपचाप रैंणी चले जाओ और पेड़ों को काट डालो।
इसी योजना पर अमल करते हुए श्रमिक रैंणी के देवदार के जंगलों को काटने के लिए चल पड़े। इस गतिविधि को एक लड़की ने देख लिया और उसने तुरंत इसके बारे में गौरा देवी को बताया। गांव में मौजूद 21 महिलाओं और कुछ बच्चों को लेकर वह जंगल की ओर चल पड़ीं। इनमें बती देवी, महादेवी, भूसी देवी, नृत्यी देवी, लीलामती, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, पासा देवी, रुक्का देवी, रुपसा देवी, तिलाड़ी देवी, इन्द्रा देवी शामिल थीं।
गौरा देवी ने पेड़ काटने आए मजदूरों से कहा ‘भाइयो, यह जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, फल-सब्जी और लकड़ी मिलती है, जंगल काटोगे तो बाढ़ आएगी, हमारे घर बह जाएंगे, आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो, जब हमारे मर्द आ जाएंगे तो फैसला होगा।’ ठेकेदार और वन विभाग के आदमी उन्हें डराने-धमकाने लगे, उन्हें बाधा डालने में गिरफ्तार करने की भी धमकी दी, लेकिन महिलाएं नहीं डरीं।
ठेकेदार ने बंदूक निकालकर जब धमकाना चाहा तो गौरा देवी ने अपना सीना तानकर गरजते हुए कहा, ‘मारो गोली और काट लो हमारा मायका।’ इसपर मजदूर सहम गए। इस मौके पर गौरा देवी ने जिस अदम्य साहस का परिचय दिया, उससे बाकी महिलाएं प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकीं। उनके अंदर भी पर्यावरण के लिए लड़ने-मरने का जज्बा पैदा हो गया। महिलाएं पेड़ों से चिपक गईं और कहा कि हमारे साथ इन पेड़ों को भी काट लो।
ठेकेदार और उनके आदमियों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि महिलाएं इस तरह का साहस दिखाएंगी। अंत में उनलोगों ने हार मान ली और पेड़ों को काटे बगैर वहां से चले गए। बाद में यह आंदोलन देश के अन्य राज्यों में भी फैला।
आंदोलन का प्रभाव
उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन ने 1980 में तब एक बड़ी जीत हासिल की, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने प्रदेश के हिमालयी वनों में वृक्षों की कटाई पर 15 वर्षों के लिए रोक लगा दी। बाद के वर्षों में यह आंदोलन उत्तर में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण में कर्नाटक, पश्चिम में राजस्थान, पूर्व में बिहार और मध्य भारत में विंध्य तक फैला। उत्तर प्रदेश में प्रतिबंध के अलावा यह आंदोलन पश्चिमी घाट और विंध्य पर्वतमाला में वृक्षों की कटाई को रोकने में सफल रहा। साथ ही यह लोगों की आवश्यकताओं और पर्यावरण के प्रति अधिक सचेत प्राकृतिक संसाधन नीति के लिए दबाब बनाने में भी सफल रहा।