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Rani Padmawati

चित्तौड़गढ़ के इतिहास में अमर है महारानी पद्मावती का अदम्य साहस..

भारत के इतिहास में दफ़न 1303 का वो साल था, जब दिल्ली सल्तनत में खिलजी वंश के दूसरे शासक ने चित्तौडगढ़ पर कब्जा किया था। आज 700 साल बाद भी खिलजी की ‘क्रूरता’ और चित्तौडगढ़ की रानी पद्मावति के अदम्य साहस की कहानी सुनते ही दिल सिहर उठता है।

Rani Padmawati
रानी पद्मावती

 

चित्तौड़गढ़ पर खिलजी की कूच की वजह रानी पद्मावति थी। अवधी में मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा लिखे पद्मावत में इसका वर्णन है। रानी को पाने की चाह मन में लिए खिलजी ने 1303 में चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई कर दी। वह भारी लाव लश्कर लिए चित्तौडगढ़ किले के बाहर डट गया। चित्तौड़ के महाराणा रतन सिंह को जब दिल्ली से खिलजी की सेना के कूच होने की जानकारी मिली तो उन्होंने अपने भाई-बेटों को दुर्ग की रक्षा के लिए इकट्ठा किया। समस्त मेवाड़ और आस-पास के क्षत्रों में रतन सिंह ने खिलजी का मुकाबला करने की तैयारी की। किले की सुद्रढ़ता और राजपूत सैनिको की वीरता और तत्परता से 6 माह तक अलाउद्दीन अपने उदेश्य में सफल नहीं हो सका और उसके हजारों सैनिक मारे गए।

alauddin khilji
अलाउद्दीन खिलजी

अतः उसने योजना बनाकर महाराणा रतन सिंह के पास संधि प्रस्ताव भेजा और कहलवाया कि मैं मित्रता का इच्छुक हूं। महारानी पद्मावति की मैंने बड़ी तारीफ सुनी है, सिर्फ उनके दर्शन करना चाहता हूं। कुछ गिने चुने सिपाहियों के साथ एक मित्र के नाते चित्तौड़ के दुर्ग में आना चाहता हूं। इससे मेरी बात भी रह जायेगी और आपकी भी। महाराणा रतन सिंह उसकी चाल के झांसे में आ गए। 200 सैनिकों के साथ खिलजी दुर्ग में आ गया। महाराणा ने अतिथि के नाते खिलजी का स्वागत सत्कार किया और जाते समय खिलजी को किले के प्रथम द्वार तक पहुंचाने आ गए। धूर्त खिलजी मीठी-मीठी प्रेम भरी बातें करता-करता महाराणा को अपने पड़ाव तक ले आया और मौका देख बंदी बना लिया।

Chittorgarh Fort
चित्तौड़गढ़ किला

राजपूत सैनिकों ने महाराणा रतन सिंह को छुड़ाने के लिए बड़े प्रयत्न किए लेकिन वह असफल रहे और अलाउद्दीन ने बार-बार यही कहलवाया कि रानी पद्मावति हमारे पड़ाव में आएंगी तभी हम महाराणा रतन सिंह को मुक्त करेंगे अन्यथा नहीं। रानी पद्मावती ने भी खिलजी की ही तरह युक्ति सोची और कहलाया कि वह इसी शर्त पर आपके पड़ाव में आ सकती है जब पहले उसे महाराणा से मिलने दिया जाए और उसके साथ उसकी दासियों का पूरा काफिला भी आने दिया जाए। इस प्रस्ताव को खिलजी ने स्वीकार कर लिया।

योजनानुसार रानी पद्मावति की पालकी में उसकी जगह स्वयं उनका खास काका गोरा बैठा और दासियों की जगह पालकियों में सशत्र राजपूत सैनिक बैठे। पालकियों को उठाने वाले कहारों की जगह भी वस्त्रों में शस्त्र छुपाए राजपूत योद्धा ही थे। खिलजी के आदेशानुसार पालकियों को राणा रतन सिंह के शिविर तक बेरोकटोक जाने दिया गया और पालकियां सीधी रतन सिंह के तंबू के पास पहुंच गई। वहां इसी हलचल के बीच राणा रतन सिंह को अश्वारूढ़ कर किले की और रवाना कर दिया गया और बनावटी कहार और पालकियों में बैठे योद्धा पालकियां फेंक खिलजी की सेना पर भूखे शेरों की तरह टूट पड़े। अचानक अप्रत्याशित हमले से खिलजी की सेना में भगदड़ मच गई और गोरा अपने प्रमुख साथियों सहित किले में वापस आने में सफल रहा।

Rajput Sainik
राजपूत सैनिक खिलजी सेना का कत्लेआम मचाते हुए..

महाराणा रतन सिंह भी किले में पहुच गए। छह माह के लगातार घेरे के चलते दुर्ग में खाद्य सामग्री की भी कमी हो गई थी। इससे घिरे हुए राजपूत तंग आ चुके थे।अतः जौहर और शाका करने का निर्णय लिया गया। गोमुख के उतर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया। पद्मावति के नेतृत्व में लगभग 16000 राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने संबंधियों को अंतिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश कर अपने प्राणों का बलिदान कर दिया।

पद्मावती द्वारा किया गया जौहर
पद्मावति के नेतृत्व में राजपूत रमणियों द्वारा किया गया जौहर…

छह माह और सात दिन के खूनी संघर्ष के बाद विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरुष, स्त्री या बालक जीवित नहीं मिला जो यह बता सके कि आखिर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सकें। उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला। रानी पद्मावती द्वारा किया गया जौहर इतिहास के सुनहरे पन्नो में हमेशा याद रखा जायेगा।

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