क्या मुंशी और प्रेमचंद दो अलग-अलग व्यक्ति थे।इस साल प्रेमचंद की जयंती पर राजेंद्र यादव के परिवार से जुड़ी अनुषा यादव ने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखा।इस पोस्ट में राजेंद्र जी की बेटी रचना को टैग करते हुए लिखा था कि दरअसल मुंशी और प्रेमचंद दो अलग-अलग व्यक्ति थे।
आगे बढ़ने से पहले हम आपको याद दिला दें कि राजेंद्र यादव प्रेमचंद की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ का प्रकाशन करते रहे।उनके निधन के बाद रचना भी हंस से जुड़ी हुई हैं।
हिन्दी गद्य-साहित्य के पितामह मुन्शी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी के निकट लमही गाँव में माता आनन्दी देवी व पिता मुंशी अजायबराय के यहाँ हुआ। उनके पिता लमही में डाकमुंशी थे।
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उनका पहला कहानी संग्रह ‘सोज़े-वतन’ जो 1908 में प्रकाशित हुआ और देशभक्ति से ओतप्रोत इस पुस्तक को अंग्रेज़ी सरकार ने न केवल प्रतिबंधित करके सभी प्रतियां नष्ट करवा दी अपितु ऐसा लेखन न करने की चेतावनी दी जिसने एक सशक्त कहानीकार व गद्य लेखक ‘प्रेमचंद’ को जन्म दिया। इस नाम से उनकी पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ का प्रकाशन ‘ज़माना’ (उर्दू) पत्रिका के दिसंबर, 1910 के अंक में किया गया।
प्रेमचंद आधुनिक गद्य-साहित्य के सुदृढ़ स्तम्भ रहे हैं। ‘असरारे मआबिद’ उनका पहला व दूसरा ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ उपन्यास उर्दू भाषा में लिखे गए। उनके सम्पूर्ण कथा साहित्य को ‘मानसरोवर’ श्रृंखला से 8 खंडों में प्रकाशित किया गया।
,’रंगभूमि'(1925), ‘कायाकल्प'(1926), ‘निर्मला’ (1927), ‘ग़बन’ (1931), ‘कर्मभूमि'(1932) और उनका कालजयी उपन्यास ‘गोदान'(1936) एवं अंतिम उपन्यास मंगलसूत्र अधूरा ही रहा जिसे उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे अमृतराय ने पूरा किया।
मुंशी प्रेमचंद’, ये नाम हिंदी जानने वाले किसी भी शख्स के लिए अनजाना नहीं है।कक्षा दो में ‘दो बैलों की कथा’ के साथ जो जुड़ाव प्रेमचंद के साथ बनता है वो कभी नहीं बदलता और उनका लघु नाटकीय गोदान जो सबसे प्रसिद्ध रही। प्रेमचंद की कहानियों को हम सब पढ़ते आए हैं और उनके लिए मुंशी जी का संबोधन बड़ा आम है।मगर पिछले कुछ समय में एक सवाल उठा है, क्या मुंशी और प्रेमचंद दो अलग-अलग आदमी थे?
दावों के अनुसार कहानी ये है कि प्रेमचंद और मुंशी जी दो लोग मिलकर हंस का प्रकाशन किया करते थे।प्रेमचंद का ज्यादा दखल लिखने-पढ़ने और संपादकीय मामलों में ज्यादा रहता था।जबकि मुंशी जी दूसरी चीजों पर ध्यान देते थे। दोनों संयुक्त रूप से हंस में एक संपादकीय लिखते थे। जिसके नीचे मुंशी प्रेमचंद लिखा रहता था।
प्रेमचंद की ख्याति लेखन के क्षेत्र में ज्यादा थी और मुंशी जी का कहीं और कुछ लिखने का रिफरेंस उपलब्ध नहीं है तो लोग धीरे-धीरे मुंशी और प्रेमचंद को एक ही समझने लगे. इस तरह हिंदी साहित्य के सबसे बड़े नाम का उदय हुआ।अगर आपने गौर किया हो तो हंस अपने कार्यक्रमों के इनवाइट वगैरह में प्रेमचंद ही लिखता है मुंशी प्रेमचंद नहीं।
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कुछ लोग ये भी बताते हैं कि मुंशी और प्रेमचंद में जिन मुंशी की बात होती है वो कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी हैं।इन्हें हिंदी साहित्य में केएम मुंशी के नाम से जाना जाता है।केएम मुंशी आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के राज्यपाल भी बने।
जिस समय प्रेमचंद और केएम मुंशी मिलकर हंस का प्रकाशन कर रहे थे, मुंशी जी राजनीति का बड़ा नाम बन चुके थे।उनकी वरिष्ठता का सम्मान करते हुए ही संपादकीय में प्रेमचंद के नाम के आगे मुंशी लिखा जाता था।जिसे लोगों ने मुंशी प्रेमचंद समझ लिया।
यह दावा जिस जगह से आता है वहां इसे नकारने की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है।मगर फिर भी एक दो सवाल हैं।प्रेमचंद का असली नाम धनपत राय था।प्रेमचंद उनका लेखकीय नाम था।ऐसे में उनकी अपनी पत्नी शिवरानी देवी के साथ प्रसिद्ध तस्वीर में भी नीचे मुंशी प्रेमचंद लिखा हुआ है।
इसी तस्वीर को आधार बनाकर हरिशंकर परसाई ने ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ निबंध लिखा था।लोग इस निबंध के आधार पर प्रेमचंद की आर्थिक स्थिति को खराब समझ लेते हैं,जबकि वास्तव में प्रेमचंद अच्छी खासी संपत्ति वाले व्यक्ति थे। इसके साथ ही पुराने जमाने में मुंशी शब्द सिर्फ क्लर्क के लिए इस्तेमाल नहीं होता था।लिखने-पढ़ने वालों के लिए भी ये सम्मान सूचक संबोधन था।
प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य कॉपीराइट एक्ट से फ्री है।इसलिए कई सारे प्रकाशकों ने उनके साहित्य को संकलित कर कई बार प्रकाशित किया है।हर साल शहर के कई छोटे बड़े शहरों में उनका साहित्य खरीदा जाता है,जो की आसानी से 50 से लेकर 250 रूपये तक उपलब्ध है किताबों की बिक्री का आंकड़ा 5000 तक पहुँच जाता है,जो उनकी लोकप्रियता दर्शाने के लिए काफी है।