महर्षि वाल्मीकी का जीवन :
एक पौराणिक कथा के अनुसार वाल्मीकि महर्षि बनने से पूर्व उनका नाम रत्नाकर था। रत्नाकर अपने परिवार के पालन के लिए दूसरों से लूटपाट किया करते थे। एक समय उनकी भेंट नारद मुनि से हुई। रत्नाकर ने उन्हें भी लूटने का प्रयास किया तो नारद मुनि ने उनसे पुछा कि वह यह कार्य क्यों करते हैं। रत्नाकर ने उत्तर दिया कि परिवार के पालन-पोषण के लिए वह ऐसा करते है।
नारद मुनि ने रत्नाकर से कहा, कि वह जो जिस परिवार के लिए अपराध कर रहे है और क्या वे उनके पापों का भागीदार बनने को तैयार होंगे? असमंजस में पड़े रत्नाकर ने नारद मुनि को पास ही किसी पेड़ से बाँधा और अपने घर उस प्रश्न का उत्तर जानने हेतु पहुँच गए। यह जानकर उन्हें बहुत ही निराशा हुई कि उनके परिवार का एक भी सदस्य उनके इस पाप का भागीदार बनने को तैयार नहीं था।
ये भी पढ़ें –कौन से सौ प्रश्न किए थे? यक्ष ने युधिष्ठिर से, लेकिन क्या आप इन प्रश्नों के जवाब जानते हैं?
यह सुन रत्नाकर वापस लौटे, नारद मुनि को खोला और उनके चरणों पर गिर गए। तत्पश्चात नारद मुनि ने उन्हें सत्य के ज्ञान से परिचित करवाया और उन्हें परामर्श दिया कि वह राम-राम का जाप करे| राम नाम जपते-जपते ही रत्नाकर महर्षि बन गए और आगे जाकर महान महर्षि वाल्मीकि के नाम से विख्यात हुए|
भारतीय संस्कृति का स्वरूप कूट-कूट कर भरा:
भारतीय संस्कृति के सत्य स्वरूप का गुणगान करने, जीवन का अर्थ समझाने, व्यवहार की शिक्षा से ओत-प्रोत ‘वाल्मीकि-रामायण’ एक महान् आदर्श ग्रंथ है। उसमें भारतीय संस्कृति का स्वरूप कूट-कूट कर भरा है। आदिकवि भगवान वाल्मीकि जी ने श्रीराम चंद्र जी के समस्त जीवन-चरित को हाथ में रखे हुए आंवले की तरह प्रत्यक्ष देखा और उनके मुख से वेद ही रामायण के रूप में अवतरित हुए।
क्रौंच पक्षियों के एक जोड़े को प्रेम में आनंदमग्न देखा :
‘रामायण कथा’ की रचना भगवान वाल्मीकि जी के जीवन में घटित एक घटना से हुई, जब वह अपने शिष्य ऋषि भारद्वाज जी के साथ एक दिन गंगा नदी के पास तमसा नदी पर स्नान करने के लिए जा रहे थे तब वहां उन्होंने क्रौंच पक्षियों के एक जोड़े को प्रेम में आनंदमग्न देखा। तभी व्याध्र ने इस जोड़े में से नर क्रौंच को अपने बाण से मार गिराया।
ये भी पढ़ें :त्रेतायुग में ऐसे हुई श्रीराम की मृत्यु
क्रौंच खून से लथपथ भूमि पर आ पड़ा और उसे मृत देखकर क्रौंची ने करुण-क्रंदन किया। क्रौंची का करुण क्रंदन सुनकर महर्षि भगवान वाल्मीकि जी का करुणापूर्ण हृदय द्रवित हो उठा और उनके मुख से अचानक यह श्लोक (अनुष्टुप छंद) फूट पड़ा : ‘‘हे निषाद् (शिकारी)! तू भी अनन्त-काल तक प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं करेगा क्योंकि तूने संगिनी के प्रेम में मग्न एक क्रौंच पक्षी का वध कर दिया है।’’
जब भगवान वाल्मीकि बार-बार उस श्लोक के चिंतन में ध्यान मग्न थे, उसी समय प्रजापिता ब्रह्माजी मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकि जी के आश्रम में आ पहुंचे। मुनिश्रेष्ठ ने उनका सत्कार अभिवादन किया तब ब्रह्मा जी ने कहा, ‘‘हे मुनिवर! विधाता की इच्छा से ही महाशक्ति सरस्वती आपकी जिह्वा पर श्लोक बनकर प्रकट हुई हैं। इसलिए आप इसी छंद (श्लोक) में रघुवंशी श्री रामचंद्र जी के जीवन-चरित की रचना करें।
रामायण महाकाव्य का निर्माण :
भगवान वाल्मीकि जी ने संकल्प लिया कि अब मैं इसी प्रकार के छन्दों में रामायण काव्य की रचना करूंगा और वह ध्यानमग्न होकर बैठ गए। अपनी योग-साधना तथा तपोबल के प्रभाव से उन्होंने श्री रामचंद्र, सीता माता व अन्य पात्रों के सम्पूर्ण जीवन-चरित को प्रत्यक्ष देखते हुए रामायण महाकाव्य का निर्माण किया।
भगवान वाल्मीकि ने नई भाषा, नए छंद, नए कथ्य, अंदाज और भाव भूमि के साथ विश्व का पहला महाकाव्य लिखकर आदि कवि होने का गौरव पाया। ‘रामायण’ में भगवान वाल्मीकि जी को ‘महर्षि’, ‘भगवान’, ‘महाप्रज्ञ’, ‘तपस्वी’, ‘आदिकवि’, ‘मुनि पुंगव’, ‘योगी’, ‘प्रभु’ तथा ‘गुरु’ आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है।