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हिमाचल प्रदेश के संस्थापक और प्रथम मुख्यमंत्री संघर्ष गाथा——-

आज हम आपको जानकारी देंगे उस महान नेता की जिसने हिमाचल प्रदेश की स्थापना और उन्नति में अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया।वो थे हिमाचल प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री डॉक्टर यशवन्त सिंह परमार जी।

हिमाचल प्रदेश के संस्थापक और प्रथम मुख्यमंत्री संघर्ष गाथा------- 1

प्रारम्भिक जीवन—-

4 अगस्त, 1906 के दिन सिरमौर रियासत के पच्छाद क्षेत्र में ग्राम चन्हालग निवासी शिवानन्दसिंह परमार के घर जन्मे बालक यशवंत ने आगे चलकर अपने सुकृतों के बूते अपने नाम को सार्थक किया। स्नातक (आनर्स), फिर स्नातकोत्तर तथा विधि स्नातक जैसी उच्च शिक्षा उत्तीर्ण करने के अलावा लखनऊ विवि. से समाज शास्त्र में 1944 ई. में पी.एचडी. की प्रतिष्ठित उपाधि ग्रहण की। इसी बीच इन्हें सिरमौर रियासत के सब-जज और बाद में जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद पर पदोन्नति मिल गई; लेकिन रियासत के विरुद्ध ही एक क्रांतिकारी एवं निर्भीक निर्णय पारित करने के कारण 1941 में सात वर्ष के लिए निष्कासित कर दिये गये।

राजनितिक जीवन और संघर्ष गाथा—-

निष्कासन की समाप्ति के बाद शिमला में वकालत करते हुए रियासती शासन के विरुद्ध प्रजामंडल आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी करने लगे। इन्हें अपनी राजनैतिक सूझबूझ, वाक्पटुता, कर्मठता और दूरदृष्टि के कारण मार्च 1947 में ‘हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल काउन्सिल’ का प्रधान चुना गया। डाॅ. परमार जब हिमाचल के राजनैतिक क्षितिज पर उभरे, तब यहाँ के लोग 31 छोटी-छोटी रियासतों में बँटे हुए थे। तब इन सभी रियासतों का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा भौतिक विकास अत्यंत दयनीय दशा में था।

वर्ष 1952 के आम चुनाव में 36 सदस्यीय विधानसभा में 28 कांग्रेस के और 8 निर्दलीय विधायकों के निर्वाचित होने के बाद 24 मार्च को मुख्यमंत्री डाॅ. यशवन्त सिंह परमार को बनाया गया। राजा आनन्द चंद के अधीन बिलासपुर अभी भी एक स्वतंत्र रियासत थी। जबकि प्रजा इसे हिमाचल में शामिल करने को आंदोलित थी। अंततः 1 जुलाइ, 1954 के दिन इसका विलय हिमाचल में कर दिया गया।

1956 में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा हिमाचल को पंजाब राज्य में मिलाने की सिफारिश करने के उपरांत इसका दर्जा ‘ग’ से घटाकर इसे केन्द्र शासित प्रदेश बनाया गया और यहाँ 1 नवंबर, 1956 को उप-राज्यपाल की नियुक्ति के साथ ही ‘हिमाचल टैरिटोरियल काउन्सिल’ गठित कर दी गई। इसके विरोध में प्रदेश के मंत्रिमंडल सहित मुख्यमंत्री डॉ. परमार ने त्यागपत्र दे दिया और यहाँ लोकतंत्र की बहाली का अभियान जनसभाओं, प्रदशनों, ज्ञापनों आदि के माध्यम से जारी रखा। लंबे संघर्ष के बाद 1963 में तत्कालीन गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने लोकसभा में एक वक्तव्य में कहा-‘‘निरुत्साहित मन से कोई कार्यवाही करने से बेहतर है कि जनप्रतिनिधियों को अपनी सरकार चलाने के लिए जो भी शक्तियां हम प्रदान करना चाहते हैं, वे दे दें।’’ फलस्वरूप हिमाचल टैरिटोरियल काउन्सिल को विधानसभा में परिवर्तित कर दिया गया और 1 जुलाइ, 1963 को डाॅ. यशवंतसिंह परमार के मुख्यमंत्रित्व में हिमाचल सरकार का गठन हुआ।

मुख्यमंत्री बनने के बाद डाॅ. परमार ने हिमाचल के चहुँमुखी विकास के लिए रात-दिन एक कर दिया। उठते-बैठते, सोते-जागते उन्हें इस पर्वतीय क्षेत्र को आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित करने के साथ ही इसे एक सुदृढ़ रूप-आकार देने की धुन सवार रहती थी। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरों द्वारा पहाड़ी क्षेत्रों को अपना उपनिवेश बनाकर रखने की साजिश के विरुद्ध संघर्ष—–

हिमाचल के निवासियो और डॉक्टर परमार को अपने ही प्रदेश के चम्बा जिला और महासू जिले के सोलन क्षेत्र में जाने के लिए दूसरे प्रदेश से होकर जाने की मजबूरी बहुत पीड़ा देती थी। इसके अतिरिक्त वे पंजाब के कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल, स्पीति, शिमला तथा हिन्दीभाषी पर्वतीय क्षेत्रों के अपूर्ण विकास के प्रति भी अत्यधिक चिन्तित रहते थे। जहाँ चाह हो वहाँ राह न निकले, यह नहीं हो सकता।

उनकी इस अव्यावहारिक सोच तथा घोर विरोध के कारण डाॅ. परमार और कैरों के बीच काफी कड़वाहट तक की नौबत भी आई। अंततः पंजाब राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर 1 नवंबर, 1966 को पंजाब राज्य का पुनर्गठन हुआ। जिसके अनुसार पंजाब के कांगड़ा, कुल्लू, शिमला और लाहौल-स्पीति जिलों के साथ ही अंबाला जिले का नालागढ़ उप-मंडल, जिला होशियारपुर की ऊना तहसील का कुछ भाग और जिला गुरुदासपुर के डलहौजी व बकलोह क्षेत्र को हिमाचल में शामिल कर दिया गया।

हिमाचल विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति रहे डाॅ. आरके. सिंह 45 वर्षों तक डाॅ. परमार के घनिष्ठ मित्र रहे, उनका कहना था-‘‘डाॅ. परमार कभी समृद्ध नहीं रहे। वे 18 वर्ष तक मुख्यमंत्री तथा 8 साल तक प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष रहे, परंतु उन्होंने कभी अपने पद का दुरुपयोग नहीं किया। उन्होंने अपने किसी पुत्र, पुत्री या बहुओं तथा सम्बंधियों को तनिक भी लाभ उठाने की परंपरा नहीं डाली। वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ऐसे दुर्लभ राजनेता थे जिन्होंने निर्धनता को चुना।’’ वर्तमान समय में देश-दुनिया में ऐसा एक भी राजनैतिक नेता आपको ढूंढे नहीं मिलेगा

जिसने राजनीति को अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन न बना लिया हो, परन्तु 2 मई 1981 के दिन हिमाचलवासियों के लिए अपनी ईमानदारी, लगन, निष्ठा, अथक परिश्रम और पवित्र सेवाभाव से एकत्र की हुई अकूत सार्वजनिक विरासत छोड़कर इस दुनिया को अलविदा कहने वाले डाॅ. परमार के बैंक खाते में मात्र 563 रु 30 पैसे थे। अपने जीवनकाल में उन्होंने हिमाचल को एकीकृत करने, सजाने-सँवारने और उन्नत करने की दिशा में जो भी प्रयत्न किये, उनकी प्रशंसा न केवल हिमाचल में बल्कि सारे भारत में हुई। यह उनके सेवाभाव, कर्मनिष्ठा, लगन, तप-त्याग तथा ईमानदारी की मिशाल है।

राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के कार्य में पर्वतीय क्षेत्रों के योगदान पर जब भी कहीं विचार होता है तो हिमाचल की भूमिका रेखांकित होती है जिसका सारा श्रेय डाॅ. परमार को जाता है क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि केवल शरीर की बात हो और प्राण की ओर ध्यान न जाये। यह सत्य है कि डाॅ. परमार के प्राण हिमाचल के आमजन में बसते थे और हिमाचल की जनता के मन-प्राणों में आज भी बसते हैं–अपना यशवर्द्धन करने वाले डाॅ. यशवंतसिंह परमार। देवभूमि के इस अनन्य एवं सरलहृदय भक्त को प्रणाम।

 

 

 

 

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